“किसानआंदोलन” के पीछे कहीं विपक्षी पार्टियों की बौखलाहट तो नहीं हैं?
नीरज कुमार श्रीवास्तव की कलम से
आज देश के कई किसान संगठन विभिन्न मांगों को लेकर सड़क पर हैं। और बड़ी तादाद में किसान अपनी मांग को लेकर पंजाब से दिल्ली की ओर कूच कर चुके हैं। कुछ स्थानों पर तो किसान और पुलिस के टकराव की स्थितियां भी उत्पन्न हो गईं।
वहीं सरकार ने किसानों के रूख को भांपते हुए दिल्ली चलो अभियान को देखते हुए राजधानी की सुरक्षा चाक-चौबन्द कर दी है। चूंकि पिछले वर्ष किसान आंदोलन के चलते सरकार को बैकफुट पर आना पड़ा था। तो ऐसे में सरकार पुराना रवैया दोहराना नहीं चाहती। वहीं किसान अपनी बात एक दूसरे से साझा कर आंदोलन को वृहद रूप न दे सके इसके लिए सरकार ने इंटरनेट का संचालन तक बंद कर दिया। वहीं सरकार ने अपने केन्द्रीय मंत्रीगणों को किसान संगठनों से बातचीत करने के लिए लगातार की बैठकें भी हो चली ,लेकिन बात नहीं बन सकी। पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान भी मान मनौव्वल में लगे हैं। किसान नेताओं से बैठक के लिए चंडीगढ़ में तीन केन्द्रीय मंत्री डेरा डाले हैं पहले दौर की बैठक तो वीडियो कांफ्रेंसिंग के माध्यम से हुई थी लेकिन अब केन्द्रीय मंत्री पीयूष गोयल के नेतृत्व में आमने-सामने होगी।
एक नजर, किसानों के जो 10सूत्रीय मांग पर
आखिर सरकार किसानों की बात मानने में क्यों आना-कानी कर रही हैं । अगर हम बात करें कृषि उपज गारंटी की , तो वर्तमान की दर से करीब 25 प्रतिशत उपज की दर में बढ़ोतरी हो जायेगी । जिससे ‘खाद्य सामग्रियां’ या सीधे तौर पर ये कहने में कोई हर्ज नहीं कि आम आदमी की पहुंच से सामान्यतः खाने-पीने की चीजें बाहर हो जायेंगी। हालांकि किसानों को एमएसपी गारंटी की बात राज्य सरकार के साथ पहले साझा करना चाहिए क्योंकि कृषि उपज की रेट का निर्धारण राज्य का अधिकार है।
दो बातें सरकार की
देश में किसान रीढ़ की हड्डी जैसा है। देश में 70 प्रतिशत किसानों की संख्या के बावजूद करीब 60 प्रतिशत किसान ऐसे हैं जो परोक्ष या अपरोक्ष रूप से कृषि काम में जुटे रहते हैं। अगर केन्द्र की सरकार से नाराजगी है तो, आगामी चुनाव में अपने मतदान अधिकार का प्रयोग कर सत्ता परिवर्तन किया जा सकता है।
मनमानी तरीके अपनाने से आम-जनमानस पर दुष्प्रभाव
राजधानी दिल्ली हो या दिल्ली से सटे बार्डर, हर जगह जाम लगा देना , टोल पर कब्जा कर बंद कर देना, या कानून व्यवस्था को चुनौती देकर अराजकता का माहौल खड़ा कर देने से आम-जनमानस पर ही नहीं देश की अर्थ व्यवस्था को सीधे तौर पर जबरदस्त नुकसान पहुंचता है।
कहीं विपक्षी पार्टियों की बौखलाहट तो नहीं?
देश भर में सिकुड़ती जा रही अन्य सभी पार्टियां क्या सत्तापक्ष भाजपा को अप्रत्यक्ष रूप से रोकने में मददगार हैं? देश में पहले भी कई आंदोलन हुए हैं और उसके सकारात्मक परिणाम भी आये हैं लेकिन वर्तमान समय में आंदोलन को जो स्वरूप दिया जा रहा है, उससे यह लगता है और स्पष्ट दिखायी देता है कि ऐसे आंदोलन से सत्ताधारी भाजपा को नुकसान पहुंचाने की एक कोशिश है जिससे सरकार और जनता दोनों के ध्यान को आंदोलन पर केन्द्रित किया जा सके । ताकि आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा को सार्थक परिणाम से रोका जा सके।