अखाड़ों की विदाई: कढ़ी-पकौड़ी की रस्म के बाद संतों ने नम आंखों से किया महाकुंभ को अलविदा

प्रयागराज। महाकुंभ के आध्यात्मिक और धार्मिक आयोजनों का समापन होते ही अखाड़ों की विदाई का सिलसिला भी शुरू हो गया। पारंपरिक परंपराओं का निर्वाह करते हुए संतों और नागा साधुओं ने कढ़ी-पकौड़ी की रस्म निभाई और फिर भारी मन से अपने-अपने गंतव्यों की ओर प्रस्थान किया। इस विदाई के दौरान संतों की आंखें नम हो गईं, क्योंकि कुंभ का यह समागम अगले बारह वर्षों के लिए समाप्त हो गया।
कढ़ी-पकौड़ी की यह रस्म अखाड़ों के लिए खास महत्व रखती है। मान्यता है कि कुंभ के समापन पर अखाड़ों के साधु-संत मिलकर इस पारंपरिक भोजन का आनंद लेते हैं और फिर एक-दूसरे को विदाई देते हैं। इस दौरान संतों के बीच आत्मीय संवाद और बीते दिनों की स्मृतियों का आदान-प्रदान भी होता है।
महाकुंभ में अपने प्रवास के दौरान अखाड़ों ने विशाल भंडारे, प्रवचन, और अनुष्ठानों के माध्यम से श्रद्धालुओं को आध्यात्मिक लाभ पहुंचाया। इस दौरान भक्तों ने अपने आराध्य संतों का आशीर्वाद लिया और उनके प्रवचनों से जीवन की दिशा पाई।
विदाई के इस क्षण में कई संतों ने कहा कि कुंभ सिर्फ एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक यात्रा है, जहां संन्यासियों और श्रद्धालुओं का मिलन होता है। अब अगले कुंभ तक के लिए यह संगम विछोह की अनुभूति से भर गया है। विदाई के समय अखाड़ों के झंडे लहराए गए, संतों ने जयघोष किए और फिर धीरे-धीरे उनका काफिला संगम नगरी से प्रस्थान कर गया।