Baby falak के case ने देश को हिलाकर रखा है।

18 जनवरी 2012 को AIIMS, दिल्ली के ट्रॉमा सेंटर में एक 2 साल की बच्ची को लाया गया। उसके सिर पर गंभीर चोट, शरीर पर काटने के निशान, चेहरे पर जलने के घाव थे; कहा गया कि बच्ची बेड से गिरी है, लेकिन डॉक्टर्स देखते ही समझ गए कि मामला कुछ और ही है।
यह पहले से ही स्पष्ट था कि बच्ची हद से ज्यादा क्रूरता का शिकार हुई है। अस्पताल ने तुरंत पुलिस को सूचना देकर बुलाया। बच्ची की कोई पहचान नहीं थी, तो अस्पताल की नर्सों ने ही उसे प्यार से “फलक” नाम दिया।
बच्ची को अस्पताल लाने वाली 14-साल की लड़की ने खुद को उसकी माँ बताया। लेकिन उसके जवाब उलझे हुए थे, कहानी मेल नहीं खा रही थी। यही से शुरू हुआ एक कठिन सफर… एक ऐसा केस जो जल्द ही मानव तस्करी के बड़े नेटवर्क तक पहुँचने वाला था।
जाँच में सामने आया कि बेबी फ़लक कई घरों और लोगों के हाथों से गुज़रकर यहाँ तक पहुँची थी। आख़िर में वह राजकुमार गुप्ता (उर्फ़ दिलशाद) नाम के व्यक्ति के पास पहुँची, जिसने उसे अपनी 14-साल की गर्लफ्रेंड को संभालने के लिए दे दिया था।
हर कदम पर नए लोग, नए झूठ, और छिपे हुए सच निकल रहे थे। यहीं से केस की कमान संभाली DCP छाया शर्मा और उनकी दिल्ली पुलिस की दक्षिण जिला टीम ने। टीम ने घर-घर जाकर पूछताछ की, कॉल रिकॉर्ड, फोटो, मोबाइल डेटा – हर सुराग को जोड़ना शुरू किया।
आज ‘बेबी फलक केस’ को भारत में चाइल्ड ट्रैफिकिंग और चाइल्ड एब्यूज अवेयरनेस का टर्निंग पॉइंट माना जाता है।
फलक नहीं रही, लेकिन उसकी कहानी ज़िंदा है और हमें याद दिलाती है कि एक टीम, एक नज़्बा, एक सच पूरी व्यवस्था बदल सकता है।



