कोल्हापुरी चप्पलों को लेकर क्या विवाद, कर्नाटक भी क्यों इस पर दावा करता है

हाल ही में इटली के मशहूर फैशन ब्रांड प्राडा ने जब मिलान फैशन शो में ऐसी सैंडल पेश कीं, जिनका डिज़ाइन पारंपरिक भारतीय कोल्हापुरी चप्पलों से मिलता-जुलता था तो इस पर बड़ा विवाद उठ खड़ा हुआ. कंपनी ने शुरुआत में भारत या कोल्हापुर का कोई उल्लेख नहीं किया. महाराष्ट्र के कारीगरों और नेताओं में भारी नाराजगी फैल गई. आरोप लगे कि प्राडा ने भारतीय सांस्कृतिक विरासत और कारीगरों की मेहनत का श्रेय लिए बिना उनकी डिज़ाइन का इस्तेमाल किया. अब कर्नाटक भी इस विवाद में कूद पड़ा है. वह इन चप्पलों की लीगेसी पर दावा कर रहा है.
प्राडा ने इन चप्पलों को 1 लाख रुपये से भी ज्यादा कीमत पर बेचने की तैयारी की जबकि भारत में यही चप्पलें 400 रुपये में बनती और बिकती हैं. हालांकि जब विवाद उठ खड़ा हुआ तो प्राडा ने सफाई दी कि ये सैंडल अभी डिज़ाइनिंग स्टेज में हैं. भारतीय पारंपरिक शिल्प से प्रेरित हैं.
प्राडा का डिजाइन कैसे कोल्हापुरी चप्पलों से जुड़ गया?
– प्राडा ने अपने फैशन शो में ऐसी सैंडल पेश कीं, जिनका डिज़ाइन पारंपरिक भारतीय कोल्हापुरी चप्पलों से मिलता-जुलता था. कोल्हापुरी चप्पलों का डिजाइन खास तरह का होता है. इसलिए ये चप्पल हर तरह की चप्पलों में अलग ही नजर आती है.
इन चप्पलों को लेकर क्या नाराजगी फैली?
– महाराष्ट्र के कारीगरों और संगठनों ने आरोप लगाया कि प्राडा ने कोल्हापुरी चप्पलों की नकल की है. उनके भौगोलिक पहचान (GI) अधिकारों का उल्लंघन किया है. कोल्हापुरी चप्पल को 2019 में GI टैग मिला था, जिससे यह कानूनी रूप से एक विशिष्ट भारतीय उत्पाद के रूप में संरक्षित है. भारतीय संगठनों के विरोध और पत्राचार के बाद प्राडा ने सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया कि उनके डिज़ाइन भारतीय हस्तशिल्प से प्रेरित हैं. प्राडा द्वारा बिना श्रेय दिए इनका डिज़ाइन इस्तेमाल करना सांस्कृतिक विनियोग (cultural appropriation) और कारीगरों के अधिकारों का उल्लंघन माना जा रहा है.
कोल्हापुरी चप्पलों की खासियत क्या है?
ये पूरी तरह हाथ से बनाई जाती हैं, जिनमें मशीन का इस्तेमाल नहीं होता. हर जोड़ी एकदम यूनिक होती है. ये चप्पलें असली, मोटे और टिकाऊ चमड़े से बनती हैं. आमतौर पर इसमें भैंस, ऊंट या गाय के चमड़े का उपयोग किया जाता है. इन चप्पलों को रंगने के लिए सब्जियों के अर्क या प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल किया जाता है, जिससे ये पर्यावरण के लिए सुरक्षित हैं.
इनका डिज़ाइन सपाट तलवे, मजबूत सोल, और पारंपरिक जटिल कढ़ाई या पंचिंग के लिए प्रसिद्ध है. चप्पलों के फ्रंट और बैक पर हथौड़े से डिजाइन बनाए जाते हैं. इन चप्पलों में सोल में कुशन नहीं होता, जिससे शुरुआत में ये कड़ी लगती हैं, लेकिन समय के साथ पहनने में बेहद आरामदायक हो जाती हैं. ये चप्पलें बेहद टिकाऊ होती हैं और आम लोगों के बजट में आती हैं. कोल्हापुरी चप्पलें महाराष्ट्र के कोल्हापुर और कर्नाटक के सीमावर्ती जिलों की सांस्कृतिक पहचान हैं.
इन चप्पलों की शुरुआत कैसे हुई. इनका क्या इतिहास है?
कोल्हापुरी चप्पलों की शुरुआत 12वीं-13वीं सदी में मानी जाती है, जब कोल्हापुर के राजा बिज्जल और मंत्री बसवन्ना ने स्थानीय कारीगरों को बढ़ावा दिया. पहले इन्हें कपशी, पायतान, कचकड़ी, बक्कलनाली और पुकरी जैसे नामों से जाना जाता था, जो उनके गांवों के नाम थे. पहले ये चप्पलें मराठा योद्धाओं, किसानों, आम लोगों से लेकर राजघरानों तक में लोकप्रिय थीं. यह शिल्प स्थानीय कारीगर समुदाय को आर्थिक स्थिरता और सामाजिक पहचान देता है. अब कोल्हापुरी चप्पलें भारत ही नहीं, दुनिया भर में अपनी टिकाऊपन, डिज़ाइन और सांस्कृतिक विरासत के लिए पहचानी जाती हैं.
कोल्हापुरी चप्पलें मुख्य रूप से महाराष्ट्र के कोल्हापुर, सांगली, सतारा और सोलापुर जिलों में बनती हैं, लेकिन कर्नाटक के बेलगावी, बागलकोट, धारवाड़ और बीजापुर जिलों में भी इनकी परंपरा सदियों से रही है। इन दोनों राज्यों के सीमावर्ती इलाकों में कारीगरों की सांस्कृतिक, पारिवारिक और पेशेवर विरासत साझा रही है.
कोल्हापुरी चप्पलों को जीआई टैग मिला हुआ है, इसका क्या मतलब होता है?
– भौगोलिक संकेत यानि ज्योग्राफिकल इंडीकेशन या GI टैग एक ऐसा चिन्ह या नाम है, जो किसी उत्पाद की विशिष्ट भौगोलिक उत्पत्ति और उस स्थान से जुड़े खास गुण, प्रतिष्ठा या विशेषताओं को दिखाता है. उदाहरण के लिए, दार्जिलिंग चाय, बनारसी साड़ी, मधुबनी पेंटिंग आदि. भारत में GI टैग भौगोलिक संकेतक (पंजीकरण और संरक्षण) अधिनियम, 1999 के तहत दिया जाता है. इसे वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय के तहत रजिस्टर्ड किया जाता है.
कर्नाटक भी क्यों कोल्हापुरी चप्पलों की लीगेसी पर अपना दावा कर रहा है?
कोल्हापुरी चप्पल की लीगेसी (विरासत) पर महाराष्ट्र और कर्नाटक दोनों ही दावा करते हैं. इसका कारण यह है कि पारंपरिक कोल्हापुरी चप्पलें न सिर्फ महाराष्ट्र के कोल्हापुर, बल्कि कर्नाटक के सीमावर्ती जिलों में भी सदियों से बनाई जाती रही हैं. यही वजह है कि जब भारत सरकार ने 2019 में कोल्हापुरी चप्पल को जियोग्राफिकल इंडिकेशन (GI) टैग दिया, तो यह टैग महाराष्ट्र और कर्नाटक—दोनों राज्यों के आठ जिलों (चार-चार) को मिला.
पहले दोनों राज्यों ने पेटेंट (GI) के लिए संयुक्त प्रस्ताव दिया था, लेकिन बाद में विवाद होने पर महाराष्ट्र ने अलग से प्रस्ताव भेजा. इस वजह से दोनों राज्यों के बीच अधिकार और पहचान को लेकर खींचतान चलती रही है. कर्नाटक का दावा है कि वहां के कारीगर भी इस परंपरा का हिस्सा हैं, इसलिए GI टैग और लीगेसी में उनकी भी बराबर की हिस्सेदारी है.